ज्ञान - विज्ञानं ज्ञान - विज्ञानं में ज्ञान विज्ञान शब्दों के भाव क्या हैं ? विज्ञान ज्ञान का माध्यम है । इन्द्रियों एवं मन माध्यम से जो अनुभव होता है . वह है विज्ञान जिसे ब्यक्त किया जा सकता है और इस अनुभव में छिपे रहस्य को निर्विकार बुद्धि के माध्यम से पकड़ना ज्ञान है । विज्ञान का लक्ष्य है . ज्ञान । इस बात को कुछ इस प्रकार से भी समझा जा सकता है ; अनुभव ( perception ) विज्ञान का आधार है और इसमें छिपा सत्य ज्ञान है । ***** ॐ *****
Wednesday, March 27, 2013
Friday, February 22, 2013
गीता मार्ग भिन्न मार्ग है [ भाग - 01 ]
गीता का सम्बन्ध युद्ध से है लेकिन ------
गीता का जन्म युद्ध - क्षेत्र का वह भाग है जहाँ एक तरफ कौरवों की सेना खड़ी है और दूसरी तरफ पांडव सेना / दोनों सेनाओं के लोग इस इन्तजार में खड़े हैं कि संकेत मिले और एक दूसरे को समाप्त करदें / दोनों सेनाओं के योद्धाओं के अन्तः करण में कामना की ऊर्जा बह रही है , अहँकार की ऊर्जा बह रही है , क्रोध की ऊर्जा बह रही है , लोभ की ऊर्जा बह रही है लेकिन -------
- श्री कृष्ण में द्रष्टा की ऊर्जा बह रही है .....
- श्री अर्जुन में मोह की ऊर्जा बह रही है ....
अर्थात
सात्त्विक गुण [ श्री कृष्ण में ] , राजस गुण [ कामना , क्रोध , लोभ के रूप में , अन्य सभीं में ] और अर्जुन में तामस गुण की ऊर्जा का संचारण हो रहा है / युद्ध क्षेत्र में जितनें लोग हैं उनको तीन श्रेणियों में देखा जा सकता
है ; श्री कृष्ण को एक द्रष्टा के रूप में जहाँ गुणातीत की ऊर्जा है , श्री अर्जुन जहाँ मोह उर्जा का वैराज्ञ नज़र आ रहा है और अन्य दोनों पक्ष के लोगों में राजस गुण [ भोग ] की ऊर्जा बह रही है / कुरुक्षेत्र का वह भाग जहाँ गीता ज्ञान का जन्म हो रहा है , त्रिवेणी है जहाँ सात्त्विक , राजस एवं तामस गुणों की धाराएं मिलती है लेकिन जहाँ इन तीनों में से एक भी नहीं नहीं होती / त्रिवेणी या संगम पर खडा हो कर गंगा को खोजिये , क्या आप को उस स्थान पर गंगा नजर आयेंगी जहाँ गंगा यमुना और सरस्वती मिलती हैं , जी नहीं नजर आयेंगी / आप उस स्थान पर यमुना को देखनें का प्रयाश करें , नहीं देख पायेंगे / संगम वह क्षेत्र है जहाँ कई आपस में मिल कर एक बनाते हैं लेकिन जहाँ उन में से किस्सी एक का भी अस्तित्व नहीं होता , हाँ उस क्षेत्र के आगे या पीछे नजर डालनें पर वे सभीं नजर आते हैं जो संगम का निर्माण करते हैं /
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -----
तीन गुण मुझसे हैं लेकिन मैं गुणातीत हूँ
ऐसे लोग जो गीता को युद्ध से जोड़ कर गीता के नाम के साथ अहिंसा को जोड़ते हैं वे भ्रमित लोग हैं / गीता का जन्म युद्ध क्षेत्र के उस भाग पर होता है जो गुणातीत क्षेत्र है , जिस क्षेत्र पर स्वयं गुणातीत योगीराज एक द्रष्टा के रूप में खड़े हैं /
अगले अंक में हम गीता की कुछ और बातों को देखेंगे
आज अभीं इतना ही
==== ओम् =======
Sunday, February 10, 2013
गीता श्लोक - 6.29 - 6.30
योगयुक्तात्मा कौन है ?
[ who is steadfast yogi ? ]श्लोक - 6.29
सर्वभूतस्थं आत्मानं सर्वभूतानि च आत्मनि
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनं
" योगयुक्त आत्मा सभीं भूतों में समभाव से आत्मा का द्रष्टा होता है
और
सभीं भूतों को काल्पनिक रूप से आत्मा में देखता है "
अर्थात
योग युक्त योगी सभीं भूतों को आत्मा से आत्मा में देखता है
श्लोक - 6.30
य : माम् पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
तस्य अहम् न प्रणश्यामि सः च में न प्रणश्यति
" वह जो सभीं भूतों में मुझे देखता है और सभीं भूतों को मुझमें देखता है , उसके लिए मैं अदृश्य नहीं रहता "
अर्थात
ऐसा योगी जो सभीं भूतों के अंदर - बाहर सर्वत्र प्रभु श्री कृष्ण को देखता
है , उस योगी के लिए श्री कृष्ण निराकार नहीं रहते
आज हम सब को यह सोच कर दिन का द्रष्टा बनें रहना है कि ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के अंदर और बाहर जो दिखे वह प्रभु श्री कृष्ण ही हों ....
लेकिन क्या हमें प्रभु श्री कृष्ण की पहचान मालूम है ?
प्रभु की वह पहचान जो शास्त्रों में दी गयी है , वह आप की पहचान नहीं बन सकती , वह पहचान उनकी है जिनको प्रभु उस प्रकार से दिखे थे और यहाँ हमें और आप को अपरचित श्री कृष्ण को पहचानना है जो सबके अंदर और बाहर हैं / सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हमें अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों एवं मन - बुद्धि के माध्यम से जिसकी भी अनुभूति हो , वह प्रभु श्री कृष्ण ही होंगे , ऎसी श्रद्धा के साथ आज का दिन हमें गुजारना है /
गीता के श्री कृष्ण की पहचान उस मन - बुद्धि के आयाम में होती है जिकी स्थिति कुछ - कुछ
इस प्रकार से हो ------
- जहाँ द्वैत्य के लिए कोई जगह न हो .....
- जहाँ मन - बुद्धि में सात्विक श्रद्धा के अलावा और कुछ न हो ......
- जहाँ मन - बुद्धि में संदेह , मोह , भय , अहंकार , कामना , क्रोध , लोभ के लिए कोई जगह न हो ...
- जहाँ समभाव की लहर बिना रुकावट बह रही हो
आज इतना ही ---
==== ओम् ======
Monday, February 4, 2013
गीता श्लोक - 8.14
प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं :
" मैं अपनें अनन्य - भक्त के लिए सदैव सुलभ हूँ "
Lord Krishna says :
" I am always available for my steadfast yogi "
अब हमें देखना है कि -----
भक्त और अनन्य भक्त में क्या फर्क है ?
भक्त जब भक्ति की गहराई में यात्रा करता है तब वह धीरे - धीरे तन , मन एवं बुद्धि से प्रभु मय होता चला जाता
है / प्रभु मय योगी सम्पूर्ण संसार की सूचनाओं को प्रभु से प्रभु में देखता है /
अनन्य भक्त वह है :--------
- जिसकी इन्द्रियाँ बिषयों में स्थित राग - द्वेष से अप्रभावित रहती हो .....
- जो काम का भोगी नहीं द्रष्टा हो .....
- जिसको कामना , क्रोध , लोभ , मोह एवं भय प्रभावित न करते हों .....
- जिसके ऊपर अहँकार की छाया तक न पड़ती हो .....
- और
- जो आत्मा के माध्यम से स्वयं में प्रभु को देखता हो
आज आप इस गीता मन्त्र पर अपनें को केंद्रित रखें
==== ओम् ======
Sunday, January 20, 2013
गीता के दो सूत्र
गीता सूत्र - 14.7
" आसक्ति , कामना एवं राग - रूप की पकड़ राजस गुण से है "गीता सूत्र - 6.27
" राजस गुण से प्रभावित कभीं ब्रह्म मय नहीं हो सकता "गीता के इन दो सूत्रों पर किया गया गहरा मनन मनुष्य को वैराज्ञ में पहुंचाता है
जहाँ
ब्रह्म - ऊर्जा के अतितिक्त और कुछ नहीं होता / वैराज्ञ
अर्थात बिना राग
अर्थात
वह जिस पर काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह भय एवं अहँकार की छाया तक नहीं पड़ती /
राजस एवं तामस गुण प्रभु से दूर रखते हैं .....
सात्विक गुण में उपजा अहंकार नर्क का द्वार दिखाता है .....
अहँकार रहित सात्त्विक गुण देह के सभीं नौ द्वारों में ज्ञान की ऊर्जा भरता है .......
ज्ञान वह जो प्रभु से प्रभु में स्थिर रखे ......
क्या है मेरा ?
क्या है तेरा ?
कौन है तेरा ? कौन है मेरा ?
मैं कौन हूँ ?
तू कौन हो ?
यह जगत क्या है ?
जगत की सभीं सूचनाएं क्या हैं ?
प्रश्न संदेह की निशानी हैं और जब तन - मन एवं बुद्धि में ज्ञान की ऊर्जा उदित होती है तब क्षेत्र , मन - बुद्धि सभीं चेतन मय हो उठते हैं और वही प्रश्न कर्ता इस स्थिति में द्रष्टा बन कर प्रकृति - पुरुष के खेल को देख कर खुश रहता है / ==== ओम् =====
Friday, January 11, 2013
गीता श्लोक - 10.7
एतां विभूतिं योगं च मम य : वेत्ति तत्त्वतः /
सः अविकल्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः //
प्रभु श्री कृष्ण अपनी नाना प्रकार की विभूतियों के सम्बन्ध में बताते हुए कह रहे हैं :" वह जो मेरी नाना प्रकार की विभूतियों को तत्त्व से समझता है , निर्विकल्प योग में पहुंचता है "
गीता में 123 श्लोक ऐसे हैं जो प्रभु को 310 उदाहरणों से ब्यक्त करते हैं लेकिन इनका अर्जुन के ऊपर जो प्रभाव पड़ता है वह न के बराबर ही दिखता है /
विभूतियाँ क्या हैं ?
वह जो इन्द्रियाँ , मन , एवं बुद्धि क्षेत्र में आता है उसे विभूतियों की संज्ञा दी जा सकती है / विभूतियों को दो रूपों में देखा जा सकता है ; साकार और निराकार , गुणी और निर्गुणी , भाब आधारित एवं भाव रहित , शब्द आधारित एवं शून्यता आधारित , भोग आधारित एवं योग आधारित या यों कहें कि द्वैत्य आधारित /याद रखना .....
- भोग का गहरा अनुभव ही योग में रुकनें देता है
- गुणों का बोध ही निर्गुण की ऊर्जा देता है
- काम का बोध ही राम को दिखाता है
निर्विकल्प योग क्या है ?
योग , साधना , जप , तप , सुमिरन , यज्ञ करना एवं भक्ति - ध्यान सभीं सत् की राह की खोज के माध्यमों में दो चरण होते हैं : पहले चरण का केन्द्र मन होता है और उसका साथ देये हैं इन्द्रियाँ एवं बुद्धि और दूसरा चरण पहले चरण का फल फल होता है / जब पहला चरण पक जाता है तब दूसरा चरण प्रारम्भ होता है जहाँ मन कर्ता नहीं मात्रा द्रष्टा होता है /पहले चरण को अपरा , साकार , सविकल्प की संज्ञा दी जाती है और दूसरे चरण को परा , निर्गुण , निराकार एवं निर्विकल्प के नाम से समझा जाता है /
अपरा या सगुण या विकल्प की साधना निर्विकल्प का द्वार खोलती है और निर्विकल्प समाधि का द्वार है जहाँ प्रभु का वह आयाम दिखनें लगता है
जो -----
अप्रमेय है
सनातन है
अब्यक्तातीत है
निर्गुण है
अब्यय है
और सर्वत्र है
==== ओम् ======Saturday, January 5, 2013
गीता सूत्र - 15.8
आत्मा एवं मन सम्बन्ध
शरीरं यत् अवाप्नोति यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरःगृहीत्वा एतानि संयाति वायु : गंधान् इव आशयात्
" जैसे वायु और गंध का सम्बन्ध है ठीक उसी तरह आत्मा और मन का सम्बन्ध है ; जब आत्मा देह त्याग कर गमन करता है तब वह अपनें साथ मन - इंद्रियों को भी ले लेता है "
प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :----
गीता सूत्र - 10.20अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित :
" सभीं भूतों के ह्रदय में आत्मा रूप में मैं हूँ '
गीता सूत्र - 10.22
इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि" इंद्रियों में मन मैं हूँ "
अब तीनों सूत्रों को एक साथ देखिये :----
मन एवं आत्मा प्रभु श्री कृष्ण के अंश हैं और आत्मा जब देह त्यागता तब अपनें संग मन को भी ले लेता है /पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्म इन्द्रियाँ जहाँ मिलती है उस जोड़ का नाम है मन / मन ठीक उस प्रकार से है जैसे हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स होता है / सृष्टि के प्रारम्भ से वर्त्तमान तक के सभीं जीवनों की सभीं सूचनाएं मन में केंद्रित रहती हैं और वैज्ञानिक तो अब यहाँ तक कहनें लगे हैं की मन देह विकास से पूर्व पूर्ण विकसित रहता है और अपनी सुविधा के लिए न्यूरो तंत्र का विकास करता है /
आत्मा उस ऊर्जा का नाम है जो देह के सभीं अंगों को सक्रिय रखती है और यह ऊर्जा न बनायी जा सकती है , न घटायी जा सकती है , न विभाजित की जा सकती है और किसी भी ढंग से यह रूपांतरित भी नहीं की जा
सकती /
जब आत्मा देह त्यागता है तब मन आत्मा को अपनी पंख जैसा बना लेता है और सघन अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए यथा उचित नये देह की तलाश में आत्मा की ऊर्जा का प्रयोग करता है और मन की वजह से आत्मा को बार - बार विभिन्न योनियों से गुजरना पड़ता रहता है /
वह मन जो देह त्याग के समय तक विकार रहित हो जाता है वह आत्मा से अलग नहीं रखता , वह निर्विकार होते ही आत्मा में विलीन हो जाता है और तब वह आत्मा आवागमन से मुक्त हो कर अपनें मूल में समां जाता है /
=== ओम् =====
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