Saturday, January 5, 2013

गीता सूत्र - 15.8

आत्मा एवं मन सम्बन्ध 

शरीरं यत् अवाप्नोति यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः 
गृहीत्वा एतानि संयाति वायु : गंधान् इव आशयात्

" जैसे वायु और गंध का सम्बन्ध है ठीक  उसी तरह आत्मा और मन का सम्बन्ध है ; जब आत्मा देह त्याग कर गमन करता है तब वह अपनें साथ मन - इंद्रियों को भी ले लेता है "

प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :----

गीता सूत्र - 10.20
अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित :

" सभीं भूतों के ह्रदय में आत्मा रूप में मैं हूँ '

गीता सूत्र - 10.22

इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि

" इंद्रियों में मन मैं हूँ "

अब तीनों सूत्रों को एक साथ देखिये :----

मन एवं आत्मा प्रभु श्री कृष्ण के अंश हैं और आत्मा जब देह त्यागता तब अपनें संग मन को भी ले लेता है / 
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्म इन्द्रियाँ  जहाँ मिलती है उस जोड़ का नाम है मन / मन ठीक उस प्रकार से है जैसे हवाई जहाज में ब्लैक बॉक्स होता है / सृष्टि  के प्रारम्भ से वर्त्तमान तक के सभीं जीवनों की सभीं सूचनाएं मन में केंद्रित रहती हैं और वैज्ञानिक तो अब यहाँ तक कहनें लगे हैं की मन देह विकास से पूर्व पूर्ण विकसित रहता है और अपनी सुविधा के लिए न्यूरो तंत्र का विकास करता है / 

आत्मा उस ऊर्जा का नाम है जो देह के सभीं अंगों को सक्रिय रखती है और यह ऊर्जा न बनायी जा सकती है , न  घटायी जा सकती है , न विभाजित की जा सकती है और किसी भी ढंग से यह रूपांतरित  भी नहीं की जा
 सकती /
जब आत्मा देह त्यागता है तब मन आत्मा को अपनी पंख जैसा बना लेता है और सघन अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के लिए यथा उचित नये देह की तलाश में आत्मा की ऊर्जा का प्रयोग करता है और मन की वजह से आत्मा को बार - बार विभिन्न योनियों से गुजरना पड़ता रहता है /
वह मन जो देह त्याग के समय तक विकार रहित हो जाता है वह आत्मा से अलग नहीं रखता , वह निर्विकार होते ही आत्मा में विलीन हो जाता है  और तब वह आत्मा आवागमन से मुक्त हो कर अपनें मूल में समां जाता है /

=== ओम् =====



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