Friday, January 11, 2013

गीता श्लोक - 10.7

एतां विभूतिं योगं च मम य : वेत्ति तत्त्वतः /
सः अविकल्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः // 

प्रभु श्री कृष्ण अपनी नाना प्रकार की विभूतियों के सम्बन्ध में बताते हुए कह रहे हैं :

" वह जो मेरी नाना प्रकार की विभूतियों को तत्त्व से समझता है , निर्विकल्प योग में पहुंचता है "


गीता में 123 श्लोक ऐसे हैं जो प्रभु को 310 उदाहरणों से ब्यक्त करते हैं लेकिन इनका अर्जुन के ऊपर जो प्रभाव पड़ता है वह न के बराबर ही दिखता है / 

विभूतियाँ क्या हैं ?

वह जो  इन्द्रियाँ , मन , एवं बुद्धि क्षेत्र में आता है उसे विभूतियों की संज्ञा दी जा सकती है / विभूतियों को दो रूपों में देखा जा सकता है ; साकार और निराकार , गुणी और निर्गुणी , भाब आधारित एवं  भाव रहित , शब्द आधारित एवं शून्यता आधारित , भोग आधारित एवं योग आधारित या यों कहें कि द्वैत्य आधारित /
याद रखना .....

  • भोग का गहरा अनुभव ही योग में रुकनें देता है 
  • गुणों का बोध ही निर्गुण की ऊर्जा देता है 
  • काम का बोध ही राम को दिखाता है 

निर्विकल्प योग क्या है ?

योग , साधना , जप , तप , सुमिरन , यज्ञ करना एवं भक्ति - ध्यान सभीं सत् की राह की खोज के माध्यमों में दो चरण होते हैं : पहले चरण का केन्द्र मन होता है और उसका साथ देये हैं इन्द्रियाँ एवं बुद्धि और दूसरा चरण पहले चरण का फल  फल होता है / जब पहला चरण पक जाता है तब दूसरा चरण प्रारम्भ होता है जहाँ मन कर्ता नहीं मात्रा द्रष्टा होता है / 
पहले चरण को अपरा , साकार , सविकल्प की संज्ञा दी जाती है और दूसरे चरण  को परा , निर्गुण , निराकार एवं निर्विकल्प के नाम से समझा जाता है /
अपरा या सगुण या विकल्प की साधना निर्विकल्प का द्वार खोलती है और निर्विकल्प समाधि का द्वार है जहाँ प्रभु का वह आयाम दिखनें लगता है
 जो -----

अप्रमेय है
सनातन है
अब्यक्तातीत है
निर्गुण है
अब्यय है
और सर्वत्र है 

==== ओम् ======

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