Tuesday, November 13, 2012

कौन खीच रहा है ?

कहाँ - कहाँ मनुष्य नहीं देखता 
ऐसा क्यों करता है ? 
अपनें को अपनें से छिपानें के लिए 
अपनें सी अपनें को केवल मनुष्य छिपाता है और कोई जीव नहीं , ऐसा क्यों ?
मनुष्य औरों को धोखा देते - देते धोखा देनें का इतना आदी हो जाता है कि स्वयं को भी धोखा देनें लगता है / वह जो अपनें को धोखा देनें लगता है समझो वह न  इधर का रहा न उधर का / 
मनुष्य भोग - भगवान में त्रिशंकु की तरह लटक रहा है : भोग से भोग में वह अपना अस्तित्व समझता
 है , भोग का उसका गहरा अनुभव है , भोग को वह सर्वोच्च समझ रखा है लेकिन बिचारा रह - रह कर पीछे खिचता  रहता है तब उसे आभाष होनें लगता है कि मेरे और भोग के मध्य जरुर कोई है जो हमें भोग में ठीक से उतरनें नहीं देता , आखिर वह कौन हो सकता है ?
मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जिसके जीवन का दो केंद्र हैं और दो केन्द्रों वाली आकृति अंडाकार जैसी होती है / मनुष्य जब भोग में कुछ दूरी तय कर लेता है तब उसे भगवान की सुध आनें लगती है और वह भोग में तृप्त नहीं हो पाता , चल पड़ता है मंदिर की शरण में और जब मंदिर में होता है तब उसे भोग अपनी तरफ खीचत है और भागता है भोग आयाम की ओर / मनुष्य की यह पेंडुलम की गति उसे  चैन से न तो भोग में टिकने  देती न ही योग में औ वह धीरे - धीरे अशांत में कहीं दम तोड़ जाता है /
भोग एक सहज साधन है और कोई साधन कभी साध्य नहीं बन सकता / भोग की समझ ही योग है , योग कहीं ऊपर से नहीं टपकता / योग का फल  है ज्ञान और ज्ञान परम प्रकाश का श्रोत है जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध करा कर भोग - योग सब का द्रष्टा बन कर कहता है , देख तूं , खूब देख , यह है तेरा माया से मायातीत , गुण से गुणातीत की यात्रा जो  भोग से प्ररम्भ हो क्र सीधे परम धाम में पहुंचाती है / 
=== राधे -  राधे ---- 

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