Monday, December 31, 2012

नव वर्ष सन् 2013

नव वर्ष का सूर्य उदित हो रहा है ...
नव वर्ष के नाम पर लोगों में एक नयी उमंग है ....
नव वर्ष एक अन्यी ऊर्जा का संचार कर रहा है , सबके ह्रदय में , ऐसा बाहर - बाहर से दिखता है ....
सभीं नव वर्ष मंगल मय हो की धुन में मस्त हैं ,ऐसा दिख रहा है ....

नव वर्ष के लिए जितनें लोग अलमस्ती को दिखा रहे हैं , उनमें वही पुराना मन और सोच है , सभीं नये वर्ष को उत्सव रूप से मना रहे  हैं लेकिन उन में कोई स्वयं को बदलनें के लिए राजी नहीं / लोगों के पुरानें मन - बुद्धि  में नया वर्ष सिमट कर रहता है और धीरे - धीरे अपनी कमजोर पड़ गयी दृष्टि से आगे आ रहे नव वर्ष को देख कर आँसू टपकाता हुआ दम तोड़ जाता है /
बिचारा वह नया वर्ष जो कल नव वर्ष था , आज पुराना वर्ष बन हुआ है और जो कल तक सबकी गोदी में खेला करता था वह आज सबकी पीठ पीछे अनाथ की तरह पड़ा हुआ सिसक रहा है /
दिन हो या रात 
वर्ष हो या शताब्दी 
इंसान हो या  अन्य जीव 
सब काल चक्र की गति के संबोधन हैं 
सभीं यह दिखाते हैं कि हर पल उसे अपनी स्मृति में जगह दो ....
जो समयातीत है , जो सनातन है 
वर्ष बदलता नहीं हम उसे बदलते रहते हैं , अपनें को देखना ज़रा , पिछले साल और इस साल में आप में क्या परिवर्तन हुआ है , हाँ आप की अपनी उम्र एक साल जरुर बढ़ गयी है /
वर्ष बदलाव के माध्यम  से स्वयं को बदलनें का यत्न करो 
स्वयं के बदलाव से देश बदलेगा 
देश बदलाव से संसार बदले ग 
और बदलाव का ही दूसरा नाम है परम पुरुष 

बदलाव में एक दिन हमें वह दिखनें लगेगा जो कभी नहीं बदलता
स्थिर की आहट ही समयातीत बनाती है 
==== ओम् =====



Wednesday, November 21, 2012

Tuesday, November 13, 2012

कौन खीच रहा है ?

कहाँ - कहाँ मनुष्य नहीं देखता 
ऐसा क्यों करता है ? 
अपनें को अपनें से छिपानें के लिए 
अपनें सी अपनें को केवल मनुष्य छिपाता है और कोई जीव नहीं , ऐसा क्यों ?
मनुष्य औरों को धोखा देते - देते धोखा देनें का इतना आदी हो जाता है कि स्वयं को भी धोखा देनें लगता है / वह जो अपनें को धोखा देनें लगता है समझो वह न  इधर का रहा न उधर का / 
मनुष्य भोग - भगवान में त्रिशंकु की तरह लटक रहा है : भोग से भोग में वह अपना अस्तित्व समझता
 है , भोग का उसका गहरा अनुभव है , भोग को वह सर्वोच्च समझ रखा है लेकिन बिचारा रह - रह कर पीछे खिचता  रहता है तब उसे आभाष होनें लगता है कि मेरे और भोग के मध्य जरुर कोई है जो हमें भोग में ठीक से उतरनें नहीं देता , आखिर वह कौन हो सकता है ?
मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जिसके जीवन का दो केंद्र हैं और दो केन्द्रों वाली आकृति अंडाकार जैसी होती है / मनुष्य जब भोग में कुछ दूरी तय कर लेता है तब उसे भगवान की सुध आनें लगती है और वह भोग में तृप्त नहीं हो पाता , चल पड़ता है मंदिर की शरण में और जब मंदिर में होता है तब उसे भोग अपनी तरफ खीचत है और भागता है भोग आयाम की ओर / मनुष्य की यह पेंडुलम की गति उसे  चैन से न तो भोग में टिकने  देती न ही योग में औ वह धीरे - धीरे अशांत में कहीं दम तोड़ जाता है /
भोग एक सहज साधन है और कोई साधन कभी साध्य नहीं बन सकता / भोग की समझ ही योग है , योग कहीं ऊपर से नहीं टपकता / योग का फल  है ज्ञान और ज्ञान परम प्रकाश का श्रोत है जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध करा कर भोग - योग सब का द्रष्टा बन कर कहता है , देख तूं , खूब देख , यह है तेरा माया से मायातीत , गुण से गुणातीत की यात्रा जो  भोग से प्ररम्भ हो क्र सीधे परम धाम में पहुंचाती है / 
=== राधे -  राधे ---- 

Friday, June 1, 2012

जबतक ------

जबतक आसक्ति है , तबतक कामना रहेगी
जबतक कामना है , तबतक क्रोध रहेगा
जबतक विचार हैं , तबतक होश बन नहीं सकता
जबतक विचार उठानें की ऊर्जा है , तबतक खोज रहेगी
जब विचार निर्विचार में बदल जाते हैं तब खोज भी समाप्त हो जाती है
प्रभु की खुशबूं लेनी है तो भोग तत्त्वों का द्रष्टा बनो
यह सब मैं नहीं प्रभु श्री कृष्ण गीता में कह रहे हैं
जो -----
एक सांख्य - योगी हैं और अर्जुन के रथ के चालक
अर्जुन से कृष्ण तक की यात्रा का नाम है गीता
==== ओम् ======

Monday, May 21, 2012

क्यों परेशान से दिखते हो ?

कल जो हुआ उस बात को आज क्यों ढो रहे हो , आज का दिन नया दिन है , आज तुम वह नहीं जो कल थे और आज वह भी वह नहीं जो कल था फिर कल की स्मृति में आज को क्यों ब्यर्थ में गवा रहे  हो ?
जीवन को बहनें दो उसे घसीटो नहीं , वह तो प्रभु का प्रसाद है , उसे प्यार से स्वीकारो /
आना - जाना , सुख - दुःख , नरम - गरम , लगाव - विलगाव यह द्वैत्य का आलम तो ऐसा ही रहेगा लेकिन तुम इसके परे पहुँच  कर उसे जरुर देख सकता है जो इन सब का श्रोत है /
==== ओम् =======

Sunday, March 4, 2012

गीता में प्रभू कहते हैं



  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा सत् को पहचानता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा प्रकृति - पुरुष का ज्ञानी होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , तत्त्व – वित् द्रष्टा होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा ही योगी , संन्यासी एवं स्थिर प्रज्ञ होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , मैं किसी के कर्म एवं कर्म फल की रचना नहीं करता

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा द्वैत्य में नहीं रहता

  • गीता में प्रभू कहते हैं , मैं नहीं कर्म की प्रेणना गुण देते हैं

  • गीता में प्रभू कहते है , कर्म का फल सुख – दुःख की जननी नहीं है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , जो कर्म फल की उम्मीद रखते हैं उनको सुख – दुःख से गुजरना होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ज्ञित :

===== ओम् =======



गीता में प्रभू कहते हैं


  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा सत् को पहचानता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा प्रकृति - पुरुष का ज्ञानी होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , तत्त्व – वित् द्रष्टा होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा ही योगी , संन्यासी एवं स्थिर प्रज्ञ होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , मैं किसी के कर्म एवं कर्म फल की रचना नहीं करता

  • गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा द्वैत्य में नहीं रहता

  • गीता में प्रभू कहते हैं , मैं नहीं कर्म की प्रेणना गुण देते हैं

  • गीता में प्रभू कहते है , कर्म का फल सुख – दुःख की जननी नहीं है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , जो कर्म फल की उम्मीद रखते हैं उनको सुख – दुःख से गुजरना होता है

  • गीता में प्रभू कहते हैं , भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ज्ञित :


===== ओम्=======