गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा सत् को पहचानता है
गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा प्रकृति - पुरुष का ज्ञानी होता है
गीता में प्रभू कहते हैं , तत्त्व – वित् द्रष्टा होता है
गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा ही योगी , संन्यासी एवं स्थिर प्रज्ञ होता है
गीता में प्रभू कहते हैं , मैं किसी के कर्म एवं कर्म फल की रचना नहीं करता
गीता में प्रभू कहते हैं , द्रष्टा द्वैत्य में नहीं रहता
गीता में प्रभू कहते हैं , मैं नहीं कर्म की प्रेणना गुण देते हैं
गीता में प्रभू कहते है , कर्म का फल सुख – दुःख की जननी नहीं है
गीता में प्रभू कहते हैं , जो कर्म फल की उम्मीद रखते हैं उनको सुख – दुःख से गुजरना होता है
गीता में प्रभू कहते हैं , भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ज्ञित :
===== ओम् =======